धर्म सहिष्णु ....एक चिंतन !


हो सकता है जो मैं यहां अपने ब्लॉग में लिखना चाह रहा हूँ या कोशिश कर रहा हूँ, उससे इसे पढ़ने वाला हर व्यक्ति शायद अवगत हो...

मैं एक छोटे से उदहारण से शुरू करता हूँ, मेरे एक FB* फ्रेंड जो की मुस्लिम है, ने एक पोस्ट शेयर किया, तीन तलाक़ पर और उसपर हमारे batchmate रहे और हमारे कॉमन FB* फ्रेंड ने जो हिन्दू था, एक भयानक साम्प्रदायिक कमेंट कर डाला, मैं भी अधिकांश लोगों की तरह ही सोशल प्लेटफार्म पर कुछ लिखने से या बोलने से थोड़ा हिचक रहा था, पर उस दिन शायद दोनों मेरे लिए परिचित थे, तो खुद को रोक नहीं पाया और उस हिन्दू दोस्त को, उसके और उस मुस्लिम दोस्त के कॉलेज के समय रहे रिश्ते को याद दिलाया और शायद कोशिश की, कि जिम्मेदारी मालूम हो और जो साथ में हॉस्टल कि मेस में जाया करते थे, ये वही लड़का है इस बात का एहसास भी ||

तो बाात इतनी है कि, हमे मालूम होना चाहिए कि जो मीडिया या FB* या कहीं और सुना या लिखा या दिखाया जा रहा है वो उतना सही है क्या जितना बताया गया है?...हम सब लोगों को कुछ भी प्रतिक्रिया करने से पहले खुद सोचना चाहिए कि ये किस हद तक सही हो सकता है | हमें भीड़ का हिस्सा नहीं बनाना चाहिये, क्या हिन्दूवादी आग में जला  मुस्लिम इंसान नहीं, या मुस्लिम दंगे में मारे गए हिन्दू को जीने का अधिकार नहीं था?

हम शायद कहीं भटकते जा रहे हैं, धर्म या मज़हब जैसी बाते हों तो विवेकशून्य हो गए हैं, डिजिटलाइज़ेशन अच्छा है पर इतना नहीं कि घर में आग का कारन बन जाये, मैं मानता हूँ हर विषय पर सब कुछ मालूम होना सबके लिए जरूरी नहीं पर गंभीरता तो समझनी चाहिए, भीड़ को दादरी में उस मुस्लिम कि जान लेने से पहले ये सोचना चाहिए था कि उसके पुरे परिवार कि जान चली जाएगी, रोजगार और रोटी चली जाएगी...या हालही के दिल्ली के दंगो में मारे गए वो हिन्दू-मुस्लिम लोग जो अपने काम के लिए घर से तो निकले पर घर वालों को जीवन भर के इंतज़ार के लिये छोड़ दिया..वो भी बिना कोई गलती किये||

इतिहास में ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं जिसमे आम लोगों को किसी के द्वारा किसी के लिये भड़काई गयी भीड़ के गुस्से का भुक्तभोगी बनना पड़ा, हर बार इंसान इतना किस्मत वाला नहीं होता की अपनों को ज़िंदा मुँह दिखाने के लिये बच जाये||

विषय बहुत गंभीर है, किसी की भावना को ठेस लगे तो उसको आत्मचिंतन करना चाहिये||

शब्दों को विराम! धन्यवाद !!

*FB-Facebook 

Comments